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६१. कदा आत्म बहु वच नोआत्म इक वच, अवक्तव्य वच एक।
कदा आत्म बहु वच नोआत्म इक वच, अवक्तव्य बहु वचदेख ।। ६२. कदा आत्म नोआत्म दोनूंइ, बहु वचने करि जाण ।
अवक्तव्य इक वचने कहिये, ए भंग बावीसमों माण ।। ६३. त्रिकसंयोगिक सप्त भांगा ए, हुवै पंचप्रदेशिक मांय ।
पिण आत्म नोआत्म अवक्तव्य बहु वच, ए अष्टम भंग न पाय।
६१. सिय आयाओ य नोआया य अवत्तव्वं, सिय आयाओ
यनोआया य अवत्तव्वाई। ६२. सिय आयाओ य नोआयाओ य अवत्तव्वं ।
(श० १२।२२४) ६३. तत्र त्रिकसंयोगे किलाष्टौ भंगका भवन्ति, तेषु च सप्तवेह ग्राह्या एकस्तु तेषु न पतत्यसम्भवात् ।
(वृ० ५० ५९६) ६४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पंचपएसिए खंधे
सिय आया जाव सिय आयाओ य नोआयाओ य अवत्तव्वं?
६४. किण अर्थे प्रभु ! पंच प्रदेशिक, दोय बीस भंग दाख्या।
श्री जिन भाखै सकल खंध आश्री, आदि भंग त्रिहुं आख्या ।।
६५. गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया परस्स आदिठे
नोआया तदुभयन्स आदिठे अवत्तव्वं ।
६६. देसे आदिङे सम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असम्भाव
पज्जवे।
आदि नां ३ भांगा नो न्याय६५. पंचप्रदेशिक आत्म कहीज, निज पर्यव आश्री ताय ।।
पर पर्यव आश्री नोआत्म कहीजै, अवक्तव्य बिहुं अपेक्षाय ।।
द्विकसंयोगिया १२ भांगा नों न्याय-- ६६. एक देश नै आत्म कहीजै, स्व पर्यव आश्री ताय। दूजो देश इक कहियै नोआत्महि, पर पर्यव अपेक्षाय ॥
[रे गोतम ! इक वच बिहुं तुर्य भंग] । ६७. इम द्विकसंयोगिक भांगा बारै, सर्व पड़े छ सोय ।
विकसंयोगिक सप्त भंग है, अष्टम भंग न होय ।। ६८. आत्म नोआत्म अवक्तव्य तीन, बहु वच अष्टम भंग।
पंच प्रदेशिक खंध में नहीं है, पेखो न्याय सुचंग ।। ६६, षट प्रदेशिक में सह पाव, असंयोगिक त्रिहुं दृष्ट ।
द्विकसंयोगिक द्वादश भांगा, त्रिकसंयोगिक अष्ट ।। पंच प्रदेशी खंध नां २२ भांगा नी स्थापना
६७. एवं दुयगसंजोगे सव्वे पडंति, तियसंजोगे एक्को न
पडइ ।
६९. छप्पएसिए सव्वे पडंति ।
षटप्रदेशिके त्रयोविंशतिरिति ।
(वृ.५०५९६)
| आ० । नो० । अव०
त्रिकसंजोगिया भांगा ७
आ० नो० | आ०
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७०. जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए।
(श० १२।२२५)
७०. षटप्रदेशिक में जिम आख्या, भंग तेवीस जगीस।
जाव अनंतप्रदेशिक में इम, भणवा भंग तेवीस ।।
वा०-षट प्रदेशिक खंध नां २३ भांगा हुवे । आदि नां ३ सकल खंध आश्री, द्विक संयोगी १२, त्रिक संयोगी ८, एवं २३ । इम आगे सात, आठ, नव, दश, संख्याता, असंख्याता, अनंत प्रदेशी लग भांगा २३ हीज हुवै, ते विचारी करवा । ७१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! सत्य तुम्हारी वानी।
एम कहीनै गोतम विचरै, ध्यान सुधा रस ठानी।
७१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ।
(श० १२२२६)
श० १२, उ० १०, ढा० २७१
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