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४०. ऊपजवा
नों एक, सत्ता नों विशेस,
नो दूसरा । त्रिहुं आलावा विषे ॥
ए
४१. असन्नी कहियो नांय, ते तो घुर पृथ्वी विषे । उपजै आगम न्याय, षट नरके नहि ऊपजे ॥ वालुकप्रभा का विस्तार
सोरठा
नीकलवा
४२. प्रभानी फुल पूछा किया रे, जिन कहै पनरे लक्ष परूपिया रे, शेष
४३. नानापज लेश्या ने विषे रे, लेह प्रथम शत जेम संग्रह गाथा कहियै छै तिका रे, सांभलज्यो धर प्रेम ।।
नरकावासे तेम | सक्करप्रभ जेन ॥
वा०-- इहां बे आदि पृथ्वी नीं अपेक्षा करिकै तीजी आदि पृथ्वी नैं विषे लेश्या में नानापणुं । तिका लेश्या जिम प्रथम शतक नै विषे कही तिम कहि
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सोरठा
लेश्या कापोत कहीजिये। कापोत ने बलि नील ए ॥ नील कृष्ण बे पंचमी । परम कृष्ण है सप्तमी ॥
४४. पहिली जी मां, तीजी मिश्र कहाय ४५. नील चतुर्थी मांग, छट्ठी कृष्ण कहाय, पंकप्रभा का विस्तार
४६. *पंकप्रभा नीं फुन पूछा कियां रे, जिन भाखे दश लाख । हम जिम सकरप्रभा ने कह रे, तिम कहि सुत्त साख ॥ ४७. नवरं अज्ञानी अवधिदर्शनी रे, नीकलवो नहि होय । शेष सर्व तिमहीज कहीजिये रे, वारू विधि अवलोय || सोरठा
४८. अवधि ज्ञान दर्शन, बहुलपण करिनें तिके । तीर्थंकर जे प्रपन्न, धुर तीनां सूं नील्या ॥ ४९. चउची प्रमुख जे सोय, तेहषी नीकलिया था। तीर्थंकर नहि होय, तिण सूं वरज्यो अवधि नें ॥ ।। धूमप्रभा का विस्तार
५०. * धूमप्रभा नीं फुन पूछा कियां रे, जिन भाखे त्रिण लाख । इस जिम पंकप्रभा ने आलियो रे, ते सर्व ही भाख ॥ तमा का विस्तार
५१. प्रश्म तमा न पूछयां जिन कहै रे, पंच ऊण इक लाख । शेष सर्व जिम पंकप्रभा विषे रे, आख्यो तिम ए भाख ॥
* लय साधूजी नगरी आया सदा भला १३४ भगवती जोड़
४०, ४१. 'नवर असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नति' कस्मात ?, उच्यते - असज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते 'असन्नी खलु पढमं' इति वचनादिति ।
( वृ० प० ६०० )
४२. वालुयप्पभाए णं पुच्छा ।
गोषमा ! पन्नरस निरवायासस्य सहसा पण्णत्ता से जहा सक्करप्पभाए ।
४३. नाणत्तं लेसासु, लेसाओ जहा पढमसए ।
४४, ४५. काऊ
(४० १३०८)
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aro - इहाद्यपृथिवीद्वयापेक्षया तृतीयादिपृथिवीषु त्वं भवति, प्रथमशते तथायाः, तत्र च गावे (५० प० ६०० )
ताश्च यथा
दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया
ए पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा ||
( वृ० प० ६०० )
४६. पंकप्पभाए णं पुच्छा ।
गोयमा ! दस निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एव
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जहा सक्करप्पभाए ।
४७. नवरं - ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उब्वट्टति, सेसं तं चेव । (No 2219)
४८, ४९. 'नवरं ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उववज्जति' त्ति, कस्मात् ?, उच्यते, ते हि प्रायस्तीर्थकरा एव ते च चतुर्थ्या उद्वृत्ता नोत्पद्यन्त इति ।
( ( वृ० प० ६०० )
५०. धूमप्पभाए
णं पुच्छा ।
गोयमा तिमि निरमावासमसहस्सा एवं वहा पंकप्पभाए । ( ० १३०१०)
५१. तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया सय सहस्सा पण्णत्ता ?
गोमा ! एगे पंचूणे निरयावासस्यसहस्से पण्णत्ते । सेसं जहा पंकप्पभाए । ( श० १३।११ )
निरयावास
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