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राजपूताने के जैन-वीर
श्रीयुत ठाकुरप्रसादजी शर्मा ने चित्तौड़ की यात्रा करते हुये भावावेश में क्या खूब लिखा है :
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हिम पर्वत से अधिक उच्च है, गौरवयत यह पर्वत ठाम । महा तुच्छ है इसके सन्मुख, स्वर्ण- मेरु कैलाश ललाम ॥ १ ॥ सब से ऊपर वहाँ हमारी, कीर्ति ध्वजा फहराती है । पग-पग पर पावन पृथिवी, वर-वीर- कथा बतलाती है ॥ २ ॥ पूर्वज - वीर अस्थियों का है, यह अभेद्य गढ बना हुआ । है सर्वत्र प्रबल सिंहों के, उष्ण रक्त से सना हुआ ॥ ३ ॥ शुचि सवला रमणी - गणने, निज जौहर यहीं दिखाया था । निज शरीर भस्मावशेप से पावन इसे बनाया था ॥ ४ ॥ युद्ध - समय रमणी प्रियतम से, कहती यही वचन गम्भीर । "धर्म - विजय अथवा शूरों की मृत्यु प्राप्त कर च्याना वीरं ||५|| जो कायर हो, कार्य किये बिन, कहीं भाग तुम आओगे । तो प्रवेश उस अधम देह से, नाथ ! न गृहं में पाचोगे ॥ ६॥ इन सब पत्थर के टुकड़ों को, भक्ति सहित तुम करो प्रणाम । यही रुधिर सुरसरि में बहकर बने राष्ट्र के सालिगराम ॥७॥ तनिक कृपा कर हमें बताओ, हे इतिहास- निपुण देवेश !' चलते समय वीर जयमल ने, तुम्हें दिया था क्या सन्देश ||८|| हे चित्तौड़ ! जगत में केवल, तू सर्वस्व हमारा है। दुखी, निराश्रित भारत को, बस तूही एक सहारा है ॥९॥
तेरे लिये सदा हम हैं, संसार छोड़ने को तैय्यार । :
तेरे बिना रसातल को, चला जायगा यह संसार ॥१०॥
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