Book Title: Rajputane ke Jain Veer
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 348
________________ ३२८ . राजपूताने के जैन-बीर इस में विशेष पूजा आदि का प्रभाव रहेगा। पूर्वजों की मूर्तियों को जिन के पृष्ट भांग में लगाने से इनके वंशजों का ऐश्वर्य नष्ट . होगा। ऊपर आकाश की तरफ मुनि की मूर्ति लगाने से यहाँ पर दर्शन और पूजन के लिये बहुत कम पुरुष आया करेंगे। जिनमन्दिर के रणमण्डप में विलास करती हुई पुतलियों का बताना अन.चत है। इसकी सीढ़ियाँ छोटी होने से इस वंश में सन्तान का अभाव होना प्रकट होता है । बारह हाथ लंबी छीनों के टूटने से मन्दिर का नाश हो सकता है। बाहर के दरवाजे पर कीमती स्तंभ लगवाए गए हैं। उनके लिए दुष्ट लोग मन्दिर तोड़ने की कोशिश करेंगे । मेघमण्डप में की प्रतिमा बहुत ऊंची होने से अपूज्य रहेगी । मन्दिर से मेठ ऊँचे हैं। हस्तिशाला पृष्ठं में होने से इस मन्दिर के दरवाजे पर हाथी नहीं रहेंगे, इत्यादि अनेक दोष, हे शोभन ! इसकी बनावट में रह गए हैं।" यह सुनकर वस्तुपाल ने होनहार इसी तरह समझा। __पंण्डित सोमधर्मगणिं की वनाई उपदेशसप्ततिका में, जिनप्रेमसरि रचित तीर्थकल्प में और पण्डित श्रीलावण्यसमय विरचित विमलरास में भी इस मन्दिर का वृत्तान्त रत्नमन्दिरंगणी की बनाई उपदेशतरङ्गिणी से मिलती हुआ ही है; जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है। अतः प्रत्येक के अलग अलग वर्णन करने का विशेष प्रयोजन नहीं, परन्तु पाठकों के विचारार्थ एक विषय यहाँ पर लिख देना आवश्यक है। वह यह हैं।.. .. .हम यथास्थान लिख चुके हैं कि वि० सं० १२७ के लेख में

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