Book Title: Rajputane ke Jain Veer
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 364
________________ राजपूताने के जैन चीर ३४२ जिन महानुभावों ने राजपूताने के इतिहास का सूक्ष्म रीति से .. अवलोकन किया है, वे जानते हैं कि राजताने के प्रत्येक गौरव युक्त कार्य में जैनों का हाथ रहा है। जैनेतर क्षत्रियों और जैनवीरों का चान्द-चान्दनी जैसा सम्बन्ध रहा है । जब जैन धर्मनिष्ठ थे, उनकी भुजाओं में वल, व्यवहार में नन्नता, आँखों में प्रोज, गले में मधुरता, चेहरे पर कान्ति, शरीर सुडोल हृदय में साहस (पक्षी) वैती सो माफ कराई जीरो मोटो उपगार कीदो सौ बी जेनरा प्रम में आप असाहीज अदोतकारी भवार की से (समय) देखता आपज फेर वे न्ही आधी पुरव, हौद सथान अत्रवेद गुजरात सुदा चार दसा म्हे धरमरो बडो अदोतकार देखाणी, ना पछे आपरो पदारणो हुवोन्ही सो कारण कही वेगा पदारसी आसु पटा प्रवाना कारण रा दर माफक आये है जी माफक तोल मुरजाद सामो आवो सावत रेगा भी बड़ा हजूर री वषत आनी मुरजाद सामो भावारी कसर पड़ी सुणी सो काम कारण लेखे भूल रही वेगा जी रो अदेसो नहीं जाणेगा, आगे सुश्री हेमा आधारजी ने श्री राम म्हे मान्या हे जीरो पटो कर देवाणो जी माफक अरो पगरा भटारष गादी प्रभावेगा तो पटा माफक मान्या जावेगा श्री . हैमाचारनी पैला श्री बारा भटारपनी ने बड़ा कारण सुं श्री राज म्हे मान्या . जी माफक आपने आपरा पगरा गादी प्र पाटवी तपगठरा ने मान्या जावेगारी सुवाये देस म्है आने गरी देवरी त्या उपासरो वैगा जीरो मुरजाद श्री राजसु वा. दुज गठरा भयारण आवेगा सौ राषगण श्रीसमरण ध्यान देवजावा करे जठे. आदं. करावसी भुलसी नहीं ने वैगा पदारसी: प्रवानगी पंचोली गोरी समत् १६३५ रा. : वर्ष आसोज सुद ५ गुरुवार ।

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