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[ ३५१ ] फायम होती है । समाज यदि सम्मानित जीवन चाहती है तो उसे ऐसे यवक-रनों का सम्मान करना चाहिये और ऐसी पुस्तकों का उचित प्रचार भी। चा० चन्द्रराज भण्डारी "विशारद! 'भानपुरा-इन्दौर:___ "पुस्तक पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। पुस्तक अत्यन्त परिश्रम
और खोज के साथ लिखी गई है । लेखक ने ऐतिहासिक रिसर्च करने में काफी परिश्रम किया है। जैन इतिहास जो कि अभी तक बहुत अंधकार में है-उसको प्रकाश में लाने का यह प्रयत्न अभिनन्दनीय है। भाषा भी इसकी दौड़ती हुई और मुहावरेदार है। मेरी ओर से लेखक को बधाई दीजिये। पं० के० भुजबलि शास्त्री अध्यक्ष जैनसिद्धांत-भवन पाराः___ "प्रस्तुत कृति सर्व प्रमाण और सर्वादरणीय है"। पं० अजितकुमार शास्त्री मुलतानः___ "पस्तक परिश्रम के साथ सजीव लेखनी से लिखी गई है। ऐसी ऐतिहासिक पुस्तके ही समाज और देश के उत्थान में सहायक होती है। पं० दीपचन्द वर्णी, अधिष्ठाता ऋ०व० पाश्रम चौरासी, मथुरा:
इसे देखते ही मन इसीको पढ़ने में लगगया, और आद्योपान्त . पदेविना नरहा गया। इसकीभाषा और लेखनशैली ओजस्वनी है" पं० महावीरप्रसाद जैन, देहली:
गोयलीयजीने यह पस्तकलिखकर जैनसमाजका मस्तक ऊँचा किया है। यह उनकी सवा दो वर्ष की तपस्या का चमत्कार है।..." दैनिक अर्जुन २८-१-३३ देहली:
"पुस्तक में वीर-रस प्रधान है । ''भाषा मुहाविरेदार और