Book Title: Rajputane ke Jain Veer
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 372
________________ [ ३५० ] किया है, तो मैं समझता हूँ आप उनका निरसन करने में बहुत कुछ सफल हुये हैं। हाँ, आपके लेखकीय वक्तव्य में निराशामय जिस परिस्थिति का उल्लेख हुआ है, उसे पढ़कर चित्त को चोट लगी और दुःख पहुँचा । वास्तव में जैनसमाज की हालत बड़ी ही शोचनीय है, वह इतिहास और रिसर्च (शोध-खोज) के महत्व को कुछ भी नहीं समझवा और इसलिये उससे ऐसे कामों में सहयोग, सहायता और प्रोत्साहन की अधिक आशा रखना ही व्यर्थ है। न्याय-व्याकरणतीर्थ पं० वेचरदास प्रो० गुजरात पुरातत्व-मन्दिर अहमदाबाद:"पस्तक लिखने में आपने जो परिश्रम किया है वह स्तुत्य है। विद्वद्वयं पं० नाथुराम प्रेमी, वम्बई: "पुस्तक अच्छी है और प्रचार होने योग्य है”। मेहता किशनसिंह दीवान हाउस जोधपुर:___ "आपका परिश्रम सराहनीय है, आपने भारतवर्ष के प्राचीन गौरव को भली प्रकार प्रकाशित किया है।" पं०कन्हैयालाल मिश्र "प्रभाकर विद्यालंकार एम.आर.ए.एस: "पुस्तक पढ़कर लेखक के सम्बन्ध में बहुत अच्छी राय + चन्द्रगुप्त के जैनत्व के विरोध में श्रीसत्यकेतुजीने जो भी युक्तियाँ अपने "मौर्य-साम्राज्य के इतिहास" में दी हैं, वे सब की सब ज्यों की त्यों अक्षरश: मैंने "मौर्य साम्राज्य के जैनवीर में उद्धृत की हैं। और पुस्तक प्रकाशित होते ही सब से प्रथम रजिष्ट्री द्वारा सत्यासत्य निर्णय के लिये सौजन्यता के नाते उनके पास भिजवा दी गई थी। चार महिने होने आये, मुझे उक्त विद्वान् की अभी तक "मौर्य साम्राज्य के जैनवीर" पर आलोचना प्राप्त नहीं हुई है, नहीं मालूम इसका क्या कारण है ? . -गोयलीय - -

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