________________
आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर
३२७ चन्द्रावती के राजा धारावर्ष से मन्दिर बनवाने के लिये जमीन खरीदी। उसकी कीमत के लिये उतनी ही पृथ्वी पर द्रम्म विद्या कर राजा को दिये । तथा उस खरीदी हुई पृथ्वी पर सूत्रधार शोभन द्वारा यह मन्दिर बनवाया । परन्तु इसकी सामग्री एकत्रित करने के लिए इसके पहले उन्हें मार्ग में स्थान स्थान पर जलाशयों और भोजनालयों का प्रबन्ध करवाना पड़ा। १५ सौ कारीगर इस मन्दिर में कार्य करते थे । इस तरह यह मन्दिर तीन वर्ष में समाम हुआ। इसके लिये पत्थर इकठ्ठे करने में पत्थरों ही के समान रुपये खर्च करने पड़े । संवत् १२८३ में यह कार्य प्रारम्भ हुआ और संवत् १२९२ में इसकी प्रतिष्ठा हुई । मन्दिर में १२ करोड ५३ लाख रुपये लगे । इसका नाम लूगिगवसही रक्खा। लोग इसको तेजपाल वसही कहने लगे। इसकी प्रतिष्ठा के समय ८४ रागक, १२ मंडलीक, ४ महीधर और ८४ जाति के महाराज एकत्रित हुए थे। इन सब के सामने जालोर के राजा चौहान श्री उदयसिंह के प्रधान यशोवीर से वस्तुपाल ने इस मन्दिर की बनावट के गुण और दोष पूछे । उस समय उसने सूत्रधार शोभन से कहना प्रारम्भ किया कि, "हे शोभन ! तेरी माँ के कीर्तिस्तम्भ पर तेरी माता की मूर्ति का हाथ ऊपर को होना उचित नहीं है; क्योंकि उसका पुत्र तू केवल कारीगर ही है; जो कि स्वभावतः ही लालची होते हैं। परंतु दानी वस्तुपाल की माता का हाथ ऊपर होना ही उचित है; क्योंकि उसने अपने गर्भ से ऐसे उदार पुरुप को जन्म दिया है । अन्दर के मन्दिर के दरवाजे पर के तोरण में दो सिंह लगाए हैं। इस से