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राजपूताने के जैन-चीर मेवाड़ के इतिहास में पढ़ा होगा। इसी युद्ध में राणा प्रताप की ।
ओर से वीर भामाशाह और उसका भाई ताराचन्द भी लड़ा. था, २१ हजार राजपूतों ने असंख्य यवन-सेना के साथ युद्ध करके स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे दी, किन्तु दुर्भाग्य कि वे मेवाड़ को यवनों द्वारा पद्दलित होने से.न. बचा सके । समस्त मेवाड़ पर यवनों का आतङ्क छा गया। युद्ध-परित्याग करने पर राणा प्रताप मेवाड़ का पुनरुद्धार करने की प्रवल आकांक्षा को लिये हुये वीरान जंगलो में भटकते. फिरते. थे। उनके ऐशोआराम. में पलने योग्य वच्चे, भोजन के लिये उनके चारों तरफ रोते रहते थे। उनके रहने के लिये कोई सुरक्षित स्थान न था। अत्याचारी मुगलों के आक्रमणों के कारण वना बनाया भोजन राणाजी को पाँचवार छोड़ना पड़ा था। इतने पर भी धान पर मिटने वाले समर केसरी प्रताप विचलित नहीं हुये। वह अपने पुत्रों और सम्बन्धियों को
हल्दीघाटी का यह विख्यात युद्ध १८ जून सन् १५७६ ईस्वी को एक घी दिन चढ़े आरम्भ हुआ था और उसी दिन सायंकाल तक समाप्त होगया था। (चान्द वर्ष ११ पूर्ण संख्या १२२ पृ० ११८ ) और अब हर्ष है कि । कुछ वर्षों से ज्येष्ठ शुल्ला ७ का इस स्वतन्त्रता बलिदान दिवस की पवित्र स्मति में कुछ कर्म-वीरों ने वहाँ मेले का आयोजन करके किसी कवि के निग्न उदगारों की पूर्ति की है• शहीदों के मजारों पर जुड़ेंगे हर वरस मेले । · वतनपर मरने वालों का यही वाक्की निशां होगा। * राजपूताने का इतिहास तीसरा खण्ड पृ० ७४३ ।- .