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१३० राजपूताने का जैन-चीर पुरुषों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा । वह यवनों से युद्धःन . करके मेवाड़ की कीर्ति रूपी स्वच्छ चादर पर: विलासिता का स्याह धब्बा लगादेगा......." - कहते कहते उनका गला रंध गया, सरदार के दो बूंट पानी पिलाने के पश्चात् वह क्षीण स्वर. से बोले:-"एक समयः शुमार अमरसिंह उस नीची कुटी में प्रवेश करने के समय सिर की पगड़ी उतारना मल गया था। इस कारण सिर की पगड़ी द्वार के निकले . हुये बाँस में लगकर नीचे गिर पड़ी। अमरसिंह ने इसको मुछ भी न समझा और दूसरे दिन मुझसे कहा कि "यहाँ पर बड़े२ महल बनवा दीजिये !"..
'युवराज अमरसिंह की पाल्यकाल की गायाकहते हुये राणाजी को पीतमुख और भी गम्भीर होगया उन्होंने फिर एक लम्बी सांस ली और कहा-"इन कुटियों के बदले यहाँ रमणीय महल बनेंगे। मेवाड़ की दुरावस्था भूलकर "अमर" यहाँ पर अनेक प्रकार के मोग-विलास करेगा। उससे इस कठोर व्रतका पालन नहीं होगा ? हा! अमरसिंह के विलासी होने पर वह गौरव और मातृभूमि की वह स्वाधीनता भी जाती रहेगी। जिसके लिये मैंने वरावर २५ वर्ष तक वन और पर्वत पर्वत पर घूमकर वनवासका कठोर व्रत धारण किया। जिसको अचल रखने के लिये सब भांति की सुख-सम्पत्ति को छोड़ा। शोकहै कि अमरसिंह से इस गौरव की रक्षान होगी। वह अपने सुख के लिये उस स्वाधीनता के गौरवको छोड़ देगा और तुम लोग, सब उसके अनर्थकारी उदाहरण का अनुसरण करके