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राजपूताने के जैन चीर
२६० हर प्रकार की कोशिशें की; परन्तु वे सब बेकार हो गई। १५. भागचन्द १६. लक्ष्मीचन्द___ रायसिंह को अपने कुटिल और मायापूर्ण इरादे के पूरा न होने से बड़ा दुःख हुथा और वह किसी न किसी दिन बदला लेने के लिए इच्छा करता रहा । सन् १६११ ईस्वी में वह बहुत विमार होगया और उसके रोग ने भयंकर रूप धारण कर लिया । जब उसने अंत समय निकट समझा, तब अपने पुत्र सूरसिंह को अपने पलंग के पास बुलाकर कहा "बेटा. मैं हताश होकर मरता हूँ। मेरी अंतिम शिक्षा तुम्हारे लिए यही है कि, तुम करमचंद बच्छावत के लड़कों को बीकानेर वापिस लाकर उनको उनके बाप के अपराध का दण्ड देना।" इन शब्दों को कहते ही रायसिंह का परलोक होगया। रायसिंह के मरने के बाद दलपतसिंह राज्य का अधिकारी हुआ, परन्तु वह केवल दो वर्ष तक राज्य कर पाया। सन् १६१३ में सूरसिंह राज्यसिंहासन पर बैठा । उसको अपने बापके मरते समय के शव्द याद थे और वह अपने कुटिल इरादे को पूरा करने के लिए उचित समय देख रहा था। राज्यसिंहासन पर बैठते ही वह दिल्ली गया। उसके दिल्ली जाने के दो अभिप्राय । थे, एक तो मुगल सम्राटको प्रणाम करने के लिए, दूसरे बच्छावत कुलको बीकानेर लाने के लिए। उसका मतलब अच्छी तरह हल हो गया। वह वहाँ भगवानचंद और लक्ष्मीचंद से मिला और उनको उसने अनेक आशायें और विश्वास दिलाने के बाद अपने साथ बीकानेर चलने के लिए राजी कर लिया।