________________
२७४
राजपूताने के जैन-चीर
साहित्य-भण्डार जब जान को लोग हथेली पर लिये फिरते थे, और सुकुमार वालकों, विलखती हुई युवतियों और डकराती हुई मांओं को छोड़कर, प्राणों का तुच्छ मोह त्याग, युद्ध में जूझ मरने को सदैव 'प्रस्तुत रहते थे; तब हमारे उन्हीं वीर पुरुखाओं ने अपने सोने से लगाकर जैन-ग्रंथों की रक्षा की थी। आज हम अकर्मण्य और कापुरुषों के कारण भले ही वह चूहे और दीमकों को उदरपूर्तिका साधन बन रहे हों, पर हमारे पूर्वज जान और माल से अधिक साहित्य का महत्व समझते थे, यह अब भी उन बचे हुये ग्रंथों से ध्वनित होता है।
प्रद्धेय पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदी ने एक बार लिजा या:-- जैनधर्मावलम्बियों में सैकड़ों सावु महात्माओं और हजारों विद्वानों ने अन्य रचना की है। ये ग्रन्य केवल जैनधर्म ही से सम्बन्ध नहीं रखते, इनमें तत्व-चिन्ता, काम नाटक, छन्द, अलंकार, कया-कहानी, इतिहास से सम्बन्ध रखने वाले अन्य हैं। जिनके उद्धार से जैनेतर जनों को भी शान-वृद्धि और मनोरंजन हो सकता है। भारतवर्ष में जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है, जिसके अनुयायी साधुओं और आचार्यों में से अनेक जनों ने धर्मापदेश के साथ ही साथ अपना सनत जीवन अन्य-रचना और ग्रंय-संग्रह में खर्च कर दिया है। इनमें कितने ही विद्वान् बरसात के चार महिने बहुधा केवल अन्य लिखने में ही बिताते रहे हैं। यह .