Book Title: Rajputane ke Jain Veer
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 295
________________ २७७ साहित्य-भण्डार कतो आदि का नाम लिखकर ले जाते हैं और उस पर साहित्य के उत्तमोत्तम लेख लिखते हैं । साहित्यसेवी "ओरियण्टल गायकवाड़ सीरीज" को भी यह कार्य अत्यावश्यक प्रतीत हुआ इसीलिये इस संस्था ने साहित्य के महान विद्वान् श्रीयुत श्रावक चिम्मनलाल जी दलाल एम. ए. को जैसलमेर भेजकर कई एक सुन्दर प्रन्थों की टिप्पणी कराई थी, और बाद में उनकी अकाल मृत्यु हो जाने पर सेण्ट्रल लायब्रेरी के जैन पण्डित श्रावक लालचन्द भगवानदासजी गान्धी ने उन टिप्पणियों को व्यवस्थित करके उन पर संस्कृत भाषा में इतिहासोपयोगी एक टिप्पण लिखा था, उस टिप्पण को "जैसलमेर-भाण्डारागारीयग्रन्थानांसूची" नाम से उपर्युक्त सीरीज ने अपने २१ वें ग्रन्थ के तौर पर सन् १९२३ में, प्रस्तुत पुरतक के आकार वाले ३४० पृष्ठों में प्रकट किया था। जैसलमेर के भएडाराधिकारी कुछ उदार हृदय होने के कारण वहाँ के ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। किन्तु जैसलमेर के अलावा अन्य जैन-भण्डारों के अधिकारी संकुचित विचार के हैं, वे उन्हें दिखाना तो दर किनार, धूप और हवा भी नहीं लगने देते, जिससे वे बस्ते में बन्ध २ सड़ रहे हैं । वर्तमान जैनसमाज के धनिक इस ओर से विल्कुल उदास हैं । वे अपने पुत्र और पत्रियों की शादी में जी खोलकर द्रव्य लुटाते हैं, जिनवाणी मावा को रेशमीन वस्त्रों से सजाते हैं, उसकी नित्यप्रति पूजा करते हैं, किंतु उसकी रक्षा के लिये उनके पास एक पैसा भी नहीं है । इसका कारण शायद यहीहै कि, वर्तमान जैनसमाजसरस्वती (जिनवाणी)

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