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अब लुप्त सी जो हो गई रक्षित न रहने से यहाँ, सोचो, तनिक, कौशिल्य की कितनी कलाएँ, थी यहाँ ? प्रस्तर विनिर्मित पर यहाँ थे और दुर्ग बड़े बड़े, थन भी हमारे शिल्प-गुण के चिन्ह कुछ कुछ हैं खड़े ॥ अब तक पुराने खण्डहरों में, मन्दिरों में भी कहीं, बहु मूर्तियाँ अपनी कला का पूर्ण परिचय दे रहीं । प्रकटा रही हैं भग्न भी सौन्दर्य की परिपुष्टता,
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'दिखला रही हैं साथ ही दुष्कर्मियों की दुष्टता || - मैथिली शरण गुप्त