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आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर
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को तोड़ कर उस स्थान पर चन्द्रावती नगर बसाया, और वहाँ पर ऋषभदेव का मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा वि० सं० १०८८ में वर्धमानसूरि द्वारा की गई।
प्रोफेसर बेवर के Catalogue of the Berlin Mss; ) बर्लिन नगर की प्राचीन पुस्तकों की सूची के दूसरे भाग के १०३६ और १०३७ वें पृष्ठों में उपर्युक्त कथा के साथ ही यह भी लिखा है कि, विमल ने जिस समय यह मन्दिर बनवाने के लिये यहाँ की भूमि ब्राह्मणों से खरीदी, उस समय उसको उतनी पृथ्वी पर सुवर्ण मुद्राएँ दिलाकर पृथ्वी के बदले ब्राहरणों को देनी पड़ी। उसने इस मन्दिर के बनवाने में १८ करोड़ और ५३ लाख व्यय किये ।
यह मन्दिर परमार धन्धुक के समय में बनवाया गया था । यह धन्धुक गुजरात के सोलंकी भीमदेव का सामन्त था । किसी कारणवश भीम और धन्धुक के बीच मनोमालिन्य हो गया । इस से धन्धुक आवू को छोड कर के मालवे के परमार राजा भोज के पास चला गया। भीम ने अपनी तरफ से विमलशाह को वहाँ का दण्डनायक ( सेनापति ) नियत किया । उसने कुछ समय बाद बंधुक और भीम के बीच का विरोध दूर कर इन दोनों के बीच . सुलह करवादी । उसी समय उसने यह मन्दिर बनवाया था।
जैनसमाज में ऐसी प्रसिद्धि है कि इस मन्दिर के बनाने के लिए हाथियों और बैलों द्वारा पत्थर पहुँचाये गये थे ।
यहाँ पर मुख्य मन्दिर के सामने एक विशाल सभा मण्डप है। इसके चारों तरफ अनेक छोटे छोटे जिनालय हैं। यहाँ पर मुख्य