Book Title: Rajputane ke Jain Veer
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli

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Page 322
________________ ३०४ राजपूताने के जैन-चीर . . . . . . . . तरह थोड़े ही समय में सर्वस्व हरण कर इसको दुतकार कर निकाल दिया ?" ___ मंडन ने देखा कि सूर्य की किरणों से तोड़ित होकर चंद्रमा भाग रहा है। उन्हों ने उसे कांतिहीन कर पश्चिम समुद्र में गिरा दिया है। उसे सूर्य के ऊपर बहुत ही क्रोध आया अपने प्रीतिपात्र चंद्रमा की विजय के लिये उसने "चंद्रविजय" नामक एक प्रबंध ललित कविता में बनाया, जिसमें चंद्रमा का सूर्य के साथ युद्धकर उसे हराना और पीछे उदयाचल पर उदय होने का वर्णन है ।.. ___ मंडन जैन संप्रदाय के खरतरगच्छ का अनुयायी था । उस समय खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनराजसरि के शिष्य जिनभद्रसरि थे । मंडन का सारा ही कुटुम्ब इन पर बहुत ही भकि रखता था और इनका भी मंडन के कुटुम्ब पर बड़ा ही स्नेह था। "पाहू" के जिनभद्रसूरि के साथ यात्रा करने का वर्णन ऊपर आ चुका है । ये बड़े भारी विद्वान् थे। इनके उपदेश से श्रावकों ने उज्नयंत (गिरनार) चित्रकूट (चित्तड़) मांडव्यपुर (मंडोवर) आदि स्थानों में विहार बनाए थे । अणहिल्लपत्तन आदि स्थानों में उन्होंने वड़ेर पुस्तकालय स्थापित किए थे और मंडप दुर्ग (मांडू) मलादनपुर (पालनपुर) तलपाटक आदि नगरों में इन्होंने जिन-मूर्तियों की प्रतिष्ठा की थी। . "जिनमाणिक्यसूरी (वि० सं० १५८३-१६१२) के समय की लिखी हुई पट्टावली और बीकानेर के यति क्षमाकल्याणजी की बनाई हुई पट्टावली से विदित होता है कि जिनराजसूरि के पट्ट

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