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राजपूतानेके जैन- वीर
अर्बुद (आबू) पर नेमिनाथ की यात्रा संघ के साथ की। संघ को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसका यह बहुत ही विचार रखता था। इसने राजा के शदास, राजा हरिराज और राजा अमरदास को जो जंजीरों में पड़े थे, परोपकर की दृष्टि से छुड़ाया। इनके सिवाय वराट लूगार और बाहड़ नाम के ब्राह्मणों को भी बंधन से छुड़ाया था । इसके धन्यराज नामक एक पुत्र था । इसका दूसरा नाम धनपति और धनद भी था । इसने भर्तृहरिशतकत्रय के समान, नीतिधनद, शृंगारघनद और वैराग्यधनद नामक तीन शतक बनाये थे । ग्रंथ की प्रशस्ति नीतिधनद के अन्त में दी है। इससे विदित होता है कि इसने नीतिधनद सबसे पीछे बनाया था । ये शतक काव्यमाला के १३ वें गुच्छक में प्रकाशित हो चुके हैं । नीतिधनद केतकी प्रशस्ति से विदित होता है, कि इसकी माता का नाम गंगादेवी था और इसने ये ग्रंथ मंडपदुर्ग (मांडू) में संवत् १४९० वि० में समाप्त किए थे ।
१२: पद्मसिंह :
करण के चौथे पुत्र का नाम पद्मसिंह था । इसने पार्श्वनाथ की यात्रा की और व्यापार से बादशाह को प्रसन्न किया था। इस का भी पद "संघपति" लिखा है । अतः इसने भी यह यात्रा संघ . के साथ ही की होगी ।
१३. आहलू:----
पाँचवें पुत्र का नाम " संघपति हलू" था। इसने मंगलपुर की यात्रा की और जीरापल्ली (जीरावला) में बड़े बड़े विशाल स्तंभ
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