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धनराज सिंघवी
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और महाशक्तिशाली मरहठों का बड़ी वीरता से सामना किया और उनको आगे बढ़ने से रोक दिया ।
पाटन युद्ध के बुरे परिणाम के कारण मारवाड़-नरेश विजयसिंह ने धनराज को हुक्म भेजा कि "अजमेर मरहठों को सौंप कर जोधपुर चले आओ ।" धनराज सिंघवी के लिये यह एक परीक्षा की कसौटी थी; क्योंकि न तो वह अपमान के साथ शत्र को देश सौंपना चाहता था और न वह अपने स्वामी की आज्ञा का उलंघन ही कर सकता था । इस भयंकर समय में वह द्विविधा में पड़ गया और अन्त में श्री० वादीभिसिंह सूरे के "जीविताचु पराधीनाज्जीशनां मरणं वरम् *" वाक्य के अनुसार मरना श्रेष्ठ समझकर अफीम खाली । मृत्यु शैय्या पर लेटे हुए इस स्वतन्त्रताः यि वीर ने चिल्लाकर कहा था कि - " जाओ और महाराज से प्रिय
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कहो कि मैंने प्राण त्याग करके ही स्वामिभक्ति का परिचय दिया हैं । मेरी मृत्यु पर हो भरहो अजमेर में प्रवेश कर सकेंगे पहले. नहीं ।"
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इसी समय से अजमेर चिरकाल के लिये मारवाड़ से अलग होगया । फिर समय पाते ही महाराष्ट्रों के हाथ से अंग्रेजी सेना ने इस अजमेर पर अधिकार कर लिया और आज तक इस अजमेर के किले पर अंग्रेजों की पताका उड़ रही है !
[२९ जनवरी ३३]
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* पराधीन जीवन से जीवों का मरण अच्छा है गुलामी से मौत 'मला है ।