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बच्छावतों का उत्थान और पतन
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अपनी आत्मरक्षा के लिए सूरसिंह के भूठे वाक्यों से और अपने पुराने अधिकारों को पुनः प्राप्त कर लेने की कूटी आशा से धोखा खाकर, बच्छावत भाइयों ने कुटुम्ब सहित अपनी जननी जन्मभूमि को प्रस्थान किया । उनको यह बात जानकर बढ़ा आनन्द हुआ कि उनके देश- परित्याग के दिन अब समाप्त होगये हैं। अब वे शीघ्र अपने देश और देशबन्धुओं को देखेंगे । उनके हृदय में सुरसिंह के प्रति जो इस समय उनका झूठा और कल्पित उपकारी बन रहा था. बड़े बड़े विचार उत्पन्न हो रहे थे । बेचारे अभागे नवयुवकों को स्वप्न में भी इस बात का विचार न आया कि जितने वायदे किये गये हैं वे सब झूठे हैं और उनको यमलोक पहुँचाने वाले हैं। सूरसिंह ने अपने षड्यंत्र के गुप्त रखने में बड़ी सावधानी रक्खी। उसने अपने वर्तमान दीवान को निकाल दिया और जनसाधारण में इस बात की घोषणा करदी कि, अब इस पद पर उन्हींको नियुक्त करूँगा, जिनका इस पर हक़ है और जो इसके अधिकारी हैं। कुछ समय के बाद वे वीकानेर पहुँचे और प्रत्यक्ष में राजा ने उनके साथ बड़ी भलमनसीका व्यवहार किया; पर यथार्थ में उनका भरण अवश्यम्भावी हो गया था । उनको वहाँ आये हुए पूरे दो मास भी नहीं हुए थे कि एकाएक उनको एक दिन प्रातः काल यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनका मकान सूरसिंह के तीन हजार सिपाहियों ने घेर लिया है। अब इस समय उनको अपनी दशा का पूरा पूरा पता लग गया। अतः उन्होंने शत्रु के वश में पड़ना नीच कर्म समझ कर वीरता के साथ मरना ही उत्तम