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' वीरनारी
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जिस समय यवन बादशाह अकबर के हाथ में भारतवर्ष के शासनकी वागडोर थी, उस समय वीर-चूड़ामणि प्रताप को छोड़कर समी राजे अपनी स्वाधीनता खोकर, पूर्वजों की मान-मर्यादा को तिलांजली देकर दासत्व-वृति स्वीकार कर चुके थे। जोधपुर का राजा उदयसिंह अपनी बहन जोधावाई और आमेर का राजा मानसिंह अपनी बहन का सम्बन्ध बादशाह से करके राजपूत जैसे उज्वल कुल में कलंक लगा चुके थे। महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तसिंह भी घरेलू झगड़ों के कारण अकवर से श्रा मिले थे। इन्हीं शिशोदिया-वीर शक्तसिंह की कन्या बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीसिंह को व्याही थी । शक्तसिंह यद्यपि इस समय "घर का भेदी लंका दावे" इस कहावत के निशाने बन रहे थे, किन्तु उनकी कन्या के हृदय में मातृभूमि के प्रेम का अंकुर फूट निकला था। वह क्षत्राणी थी, उसे अपने कुल की मानमर्यादा का पूरा ध्यान था। उसके कुल की असंख्य वीरांगना जीते जी आग में कूद कर मरी हैं, रण-क्षेत्र में शत्रुओं का रक्त वहा कर राजपूती शान दिखा गई हैं, इत्यादि बातों का उसे पूरा ज्ञान था । वह भी अपने पति के साथ आगरे में रहती थी । अकबर अपनी काम वासनायें वास करने के लिये अनेक राक्षसी यत्न करता रहता था। अपनी विलासिता के लिये वह आगरे के किले में महिने में एकधार मीना बाजार लगवाता था। उसमें केवल नियों के जाने की बाशा थी। राजपूत और मुसलमान न्योपारियों की खियाँ अनेक देशोंके. शिल्पजात पदार्थ लाकर उस मेले में कारबार किया करती थीं।