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राजपताने के जैन चीर सममा । उनके राजपूत नौकरों का. छोटा सा समूह-जिसकी संख्या केवल पाँचसौ थी-अपने मालिकों के लिए चारों तरफ खड़ा होगया और अपनी कमर कसकर उनकी रक्षा करने को तैयार हो गया। प्रत्येक राजत लड़ाई की चोटों को सहने के .. लिए तैयार था और मरने के लिए साहस और धैर्य रखता था । बच्छावत और उनके साथी वीरोंकी भांति खड़े रहे; परन्तु यथार्थ में पूछा जाय तो कहना पड़ेगा कि यह न्याय की लड़ाई नहीं थी। यह केवल अन्याय था और आक्रमण करने वालों का बड़ा ही नीच और घृणित कर्म था । जब बचाव की सब आशायें निराशा में परिणत हो गई तव दोनों भाइयों ने जो अपनी जैनजाति के सच्चे वीर थे, अपने वंश का नाम कायम रखने के लिए प्रण ठान लिया । उन्होंने हताश हो कर अपनी भयंकर परन्तु . प्राचीन प्रथा जौहर की शरण ली।प्राणनाशक चिता तैयार कीगई
और उसमें तमाम स्त्रियाँ जल कर भस्म हो गई । त्रियों, बच्चों चूड़ों, बीमारों सभी ने अपने प्राण दे दिये। कितने ही तलवार से कट कर मर गये और कितने ही अग्नि की ज्वाला में कूद पड़े। . ज्यों ही धुर्वे के गुव्वारे घेरा बनाते हुए ऊपर को उठे, त्यों ही रक्क. . की नदियाँ वह निकलीं। एक भी मरने से नहीं हिचकता था। समस्त बहुमूल्य पदार्थ नष्ट कर दिये गये और कुए में फेंक दिये .. गये। इसके पश्चात् वच्छावत भाइयों ने अर्हत्परमेष्टी को नमस्कार किया और अन्त समय केशरिया वाना पहिन कर एक दूसरे को छाती से लगाया ! तदनंतर उन्होंने हवेली के द्वार खोल दिये और .