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२५८.. राजपूताने के जैन-चीर .. घोर वैर था, परन्तु इस बात से तो राजा और भी चिढ़ गया। . करमचंद ने अपने धर्म और जाति की जो सेवा की है उसको शब्दों में कदापि प्रकट नहीं किया जा सकता। अब तक वह संघ का उपकारी समझा जाता है । सन् १५५५ ईस्वी में चौकानेर में उसने खरतरगच्छ के आचार्य जिनचंद्रसूरि के शुभागमन के समय बड़े समारोह के साथ उत्सव किया था। जो कवि आचार्य महाराज के आगमन के शुभ समाचार करमचंद के पास लाया था. उसको करमचंद ने बहुत बड़ा इनाम दिया था।
..:: १५७८ .:.]2. वि० सं० १६३५ के अकाल में उसने अन्न वट... वाने के मुफ्त केन्द्र स्थापित करके मूखो प्रजा का दुःख दूर करने का प्रयत्न किया। .. करमचंद बड़ा दानी.या, परन्तु वईभादों के साथ जो उसने . विरोध किया था, उससे हम इतना अवश्य कहेंगे कि वह आलसी लोगों को दान नहीं देता था। जब वह दिल्ली में था: तो उसने अकवर के सरल निष्पक्ष स्वभाव को देखकर उसके हृदय में जैन धर्म और जैनशाखों से रुचि उत्पन्न करा दी थी। उसी की सलाह से अकवर ने उस समय के प्रसिद्ध विद्वान्. हीरविजयसूरि और.. जिनचन्द्रसूरि जैनाचार्यों को अपने दरबार में बुलाया था और . उनको अपने साथ रक्खा था । सन् १५६२ ईस्वी में करमचन्द ने जिनसेनसरिको गद्दी पर बैठालने का जल्सा बड़े समारोह के साथ लाहौर में लिया । उसने मुसलमानों से जैनियों की बहुतसी मूर्तियाँ : ली जो उनके हाथ लग गई थी और उन सबको बीकानेर के मंदिर