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राजपूताने के जैन-वीर
रण हुई। उसने राजा को सन्मार्ग पर लाने के लिये दृढ़ संकल्प कर लिया था और उस के लिए उसने अटल विश्वास और श्रविश्रांत श्रम और उत्साह से, जो सदा उन लोगों के पथप्रदर्शक होते हैं जो सत्य और न्याय मार्ग पर चलते हैं-उद्योग किया। उस के ऐसा करने से उन लोगों कों बहुत ही बुरा मालूम हुआ, जो राजा को अपव्यय और दुराचार में फँसा हुआ देखना चाहते थे। धीरे धीरे दरवार में उन लोगों का जोर बढ़ता गया और उन्होंने करमचन्द की तरफ़ से राजा के कान भरने शुरू किये और उस पर यह दोप लगाया कि उस ने राजा के लिये षड्यंत्र रचा है । अंधविश्वासी राजा ने जिसके अंधविश्वास के विषय में स्वयं मुग़ल सम्राट जहांगीर ने लिखा है, उन सब मन घड़ंत बातों पर विश्वास करलिया, जो करमचन्द के शत्रुओं ने उस से कहीं थीं । उसने तत्काल करमचन्द को पकड़ने और उसे मार डालने का संकल्प कर लिया । करमचन्द के मित्रों ने, जो कुछ उसके विषय में दरबार में कहा गया था, वह सब उसको सुना दिया । ज्यों ही उसने राजा के हुक्म को सुना, त्योंही वह बीकानेर से दिल्ली भाग गया और वहाँ अकबर की शरण में जा पहुँचा । दिल्ली नरेश ने उस अशरण अभ्यागत के ऊपर बड़ी ही कृपा की और उस को दरबार में एक उत्तम पद दिया । अकवर की दृष्टि में करमचन्द का महत्व दिन दिन वढ़ता गया और शीघ्र ही सम्राट् पर उसका बड़ा प्रभाव पड़
गया।
जब रायसिंह को यह बात मालूम हुई कि करमचन्द्र दिल्ली