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मेवाड़ के वीर आँखोंमें बहुत खटकताथा,पर वहबड़ाही दूरदर्शी और नीतिकुशल था जिससे उन्हें उससे बदला लेने का कभी अवसर ही नहीं मिलता था, वि० स० १८४६ कार्तिक सुदी ६ (ई० स० १७८९ ता० २४ अक्टूबर) को जब कुरावड़ का रावत अर्जुनसिंह और चावंड का रावत सरदारसिंह महलों में गये उस समय सोमचन्द प्रधान भी वहीं था । उसे मारनेका यह उपयुक्त अवसर पाकर उन्होंने सलाह करने का बहाना किया और उसे अपने पास बुलाया तथा उससे यह पूछते हुये कि "तुम्हें हमारी जागीर जन्त करने का साहस कैसे हुधा"दोनों तरफ से उसकी छाती में कटार घुसेड़ दिया जिस से , वह तत्काल मरगया। ...... जब सोमचन्द के इस प्रकार मारे जाने का समाचार उसके भाई सतीदास तथा शिवदास को मिला, तव वे तुरन्त महाराणा के पास जो उस समय बदनौर के ठाकुर जेतसिंह के साथ सहेलियों की बाड़ी में था - पहुँचे और अर्ब किया 'हम लोगों को आप शत्रु के हाथ से क्यों भरवाते हैं ? .
आप अपने ही हाथ से मार डालिये।" उनके चले जाने के बाद रावत अर्जुनसिंह सोमचन्द के खून से भरे हुए अपने हाथों को विना धोये ही महाराणा के पाह पहुँचा । उस को देखते ही महाराणा का क्रोध भड़क उठा, पर असमर्थ होनेके कारण अर्जुनसिंह की इस ढिठाई के लिये उसे कोई दण्ड तो न दे सका, परन्त
केवल यही कहा-दशावाज मेरे सामने से चलाजा, मुझे मुंह मत • दिखला "। महाराणाको अत्यन्त क्रुद्ध देखकर अर्जुनसिंह ने वहाँ
ठहरना उचित न समझा और तुरन्त वहां से लौट गया। ......