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चौहान वंशीय जैन वीर २३५ अत्यक्ति न समझी जाय तो कहना पड़ेगा कि इन्द्रराज सिंघवी का भौतिक शरीर उस मिट्टी से नहीं बना था, जिससे कि विभीषण, जयचन्द और शक्तसिंह आदि का शरीर बना था । अपितु देशप्रेम और सहृदयता के परमाणु जो एक स्थान पर इकट्ठे होगये थे, उसी पुंज का नाम शायद इन्द्रराज सिंघवी रख दिया गया था। मारवाड़-नरेश के इस दुर्व्यवहार से इन्द्रराज सिंघवी क्रोधित नहीं हुआ। बल्कि इस विपदावस्था में पड़ जाने से जोधपुर-नरेश को अपने पराये का जो ज्ञान तक नहीं रहा था, इस पर उसे तरसही आया.! "तब क्या मारवाड़ अब मारवाड़ियो का न रहकर कंछवाहों का होगा ? नहीं, यह शरीर मारवाड़ का है, अंतः जब तक इसमें एक रक्तकी बूंद भी बाकी रहेगी, हम मारवाड़ियों के सिवा यहाँ किसी का आधिपत्य न होने देंगे। यह पागल का प्रलाप
और शेखचिल्ली की बड़ नहीं, अपितु इन्द्रराज सिंघवी और उन चार सामन्तों का भीषण संकल्प था। अतएवं उन्होंने शत्र-पल में रहते हुए भी किसी प्रकार शत्र-पक्षके संबसे प्रबल शक्तिशाली * खोलि विदेसिनुकों दियौ, देस-द्वार मतिमन्द।
स्वारथ-लगि कीनों कहा, अरे अधम जयचन्द।। स्वर्ग-देस लुटवाय, संठ ! कियौ कनक में छार। फूट बीज इत ब्वै गयो, जयचन्द जाति-कुठार।. दियो विदेसिनु अरपि,धन-धरती घरम स्वछंद। हमैं फूट अब. देत तं धिक दानी जयचन्द ॥
--वियोगीहरि