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सिंघवी इन्द्रराज किन्तु ठीक खतरे के मके पर उनके सरदार और सामन्तों ने उनके प्रति विश्वासघात और द्रोह किया था, अतः वह अपने रहे सहे अनुयाइयों को भी शंकितदृष्टि से देखने लगे । जहाँ जान
और माल की बाजी लगी हुई हो, वहाँ अपनी ओर के खिलाड़ी ही प्रतिद्वन्दी से मिले हुये हों, रक्षा के लिये बान्धी हुई तलवार ही जब अपना रक्त चाटने को उद्यत हुई हो अथवा शोमा के लिये पहना हुआ गले का हार ही जब नाग वनकर डस रहा हो, तब कैसे और क्योंकर किसी पर विश्वास किया जा सकता है? न्याघ इतना भयानक नहीं जितना कि गौमुखी व्याघ, शत्र से चौकन्ना रहा जा सकता है, पर मित्ररूप-शत्रु से बचना परा टेढ़ी खीर है । अस्तु, मानसिंह के जो सच्चे हृदय से शुभेच्छु थे, उन्हें भी वह कपटी और द्रोही समझने लगे। शरीर के किसी अंग के सड़जाने पर जब औपरेशन किया जाता है, तब दूषित रक्त के साथ कुछ स्वच्छ रक्त भी शरीर से पृथक होजाता है ! इसी नीति के अनुसार मारवाड़ के चार सामन्त जो महाराज मानसिंह की जाति के थे और हृदय से देश-भक्त थे, उन्हें महाराज मानसिंह ने शत्र से मिला हुआ समझ कर किले से बाहर निकाल दिया। टॉड साहब के कथनानुसार इद्रराज सिंघी जो मानसिंह के पहले मारवाड़ के दो राजाओं के शासन समय में दीवान पद
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जिसे हम हार समझे थेगला.अपना सजाने को । वह काला नाग बन बैठा हमारे काट खाने को ।।
-अज्ञात्