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जोधपुर-राजवंश के जैन-चीर २१३ १६. रावसुरतरामजी:
(०.१४ संग्रामसिंहजी के पुत्र) ये नागौर के महाराजा बखतसिंह जी के.यहाँ :ौजवख्शी थे। सं० १८०८ में महाराज के साथ
रानी यही कि वह कुछ राजपूतों को अपने पक्ष में करके भारत के समस्त राजपूतों को शिखंडी बनाना चाहता है। भारत के हाथों भारत-सन्तान का पर्तन चाहता है। भोले.द्वारपाल ! याद रक्खो, स्वामी सेवक का चाहे जितना आदर क्यूं न करे, चाहे मणिमुक्ता.देकर उसको.सोने की जंजीर से क्यों न जो दास है; वह तो सदा दास ही रहेगा! ___ द्वार०-महारानीजी! आपका कथन सत्य है, किन्तु पति फिर भी पति है, उनका अपमान करने से क्या लाभ? क्षमा कीजिये, मैं
आपको कुछ सीख नहीं दे रहा हूँ, परन्तु फिर भी पुराना सेवक होने का अभिमान रखते हुए, मैं यह प्रार्थना करता हूँ, कि आप इस समय तो उन्हें अन्तःपुर में बुलाकर सान्त्वना.दें, पश्चात् क्षत्रियोचित कर्तव्य का ज्ञान कराने के लिए कुछ उतार चढ़ाव की बातें भी करें। इसके विपरीत करने से जग हँसाई होगी और प्रजा भी उहण्ड हो जायगी। · · द्वारपाल:केसमय:विरुद्ध व्याख्यान को सुनकर शिशोदिया राज कुमारी झांला उठी, किन्तु द्वारपाल की स्वामि-भक्ति ने क्रोधके पारे को आगेन बढ़ने दिया, वह:सहम कर बोली...तुझ से अधिक मेरे हृदय में उनका मान है । वह मेरे ईश्वर है; मेरे देवता हैं, मैं उनकी पुजारिन हूँ। परन्तु मालूम होता है