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२१८ राजपूताने के जैन चोर १८६१) का दिया गया है जो प्रकट रूपसे जैनधर्मी रहे। यद्यपि । उक्त लेखक महोदय के कथनानुसार अब भी इस वंश की जैन- .. धर्म पर पूर्ण श्रद्धा है, परन्तु पुस्तक का विषय केवल जैनधर्मनिष्ठ व्यक्तियों का चरित्र संकलन करना है, इसी.लये संवत् १८६१ के पपचान होनेवाले महानुभावों का यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है।
, -गोयलीय
[१६ जनवरी सन् ३३]