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२१४ राजपूतानेके जैन-चीर : .. जोधपुर आनेपर भी यही रहे। इनको राज्य की ओर से सं० १८०८ . श्रावणवदी ३ को लूणावास और पाडलाऊ गाँव रेख ३०००) तीन हजार के प्रदान किये गये । सं०१८२० ज्येष्ठ शुक्ला ५ को दीवानगिरी का अधिकार मिला । सं० १८२३ तक इस पद पर रहे। राज्य ने वृद्धावस्था में तेरी बुद्धि पर पाला पड़ गया है, वीरता को जंग लग गया है, नहीं तो ऐसी बातें नहीं करता। क्या तू नहीं जानता कि मारवाड़ वीर-प्रसवा भूमि है ? यहाँ के निवासी युद्ध से भागना "नहीं जानते, वह जानते हैं युद्ध में कट'कर मरना । महाराज को देखने पर जव उन्हें मालूम होगा कि यहाँ युद्ध से भागे हुये कायर को भी शरण मिल सकती है. उसका भी आदर होता है, तब वह भी यह कुटेव सीख जायँगे । अतएव मैं नहीं चाहती कि मेरे देशवासी कायर वनें।" . . . . . . . .
वृद्ध द्वारपाल अवाक रहगया ! वह किंकर्तव्यविमूढ़ की नाई पृथ्वी को कुरेदने लगा। +
+ + - शिशोदिया राजकुमारी की सास भी छुपी हुई यह सब कुछ सुन रही थी। पुत्रवधू के वीरोचित शब्दों से यशवन्त की जननी 'का रक्त खौल उठा । यह वास्तव में उसका अपमान था। वह दुःख में अधीर हो उठी । पुत्र को पुनः रणक्षेत्र में कैसे भेजेंवह यही सोचने लगी। अन्त में उसने क्रोध को दबाकर गर्म लोहे को ठण्डे लोहे से काटा । यशवन्तसिंह को बुलाकर सदा की भांति प्यार करके भोजन जिमाने लगी ! सुवर्ण के स्थान में लोहे के :