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११२ राजपूताने के जैन-चीर १५. मेहता सावंतसिंहजी:- . . . . .
(नं १३ वैरसीजी के पुत्र) इन्होंने जालोर की हुकूमत की और 'उसके पास ही सं०१७८४ में सावंतपुरा नामका एक ग्राम बसाया। नहीं, अवएव मेरी आज्ञा से शहर के दरवाजे बन्द करदो।"
' द्वारपाल थर-थर कांपने लगा, उसकी बुद्धि को काठ मार गया। वह गिड़गिड़ाकर बोला "महारानीजी का सुहाग अटल रहे.। मैं 'आप की श्रीज्ञा-पालन में असमर्थ हूँ, वह हमारे महाराजा हैं, जीवनदाता हैं।"
रानी नहीं! अब वह जीवनदाता नहीं। जो प्राणों के भय से भागकर स्त्री के आँचल में छपे वह जीवनदाता नहीं। जीवनदाता वह है, जो सर्वसाधारण के हितार्थ अपना जीवनदान करने को सदा प्रस्तुत रहे।
द्वार-महारानीजी! वह हमारे अन्नदाता हैं। • रानी-असम्भव ! जो दासत्त्व वृत्ति स्वीकार कर 'चुका हो, परतन्त्रता के बन्धन में जकड़ा जा चुका हो; जो दूसरे की दी हुई सहायता से अपने को सुखी समझता हो, वह अन्नदाता नहीं।
द्वार-वह परतन्त्र नहीं, अपितु यवन बादशाह के दाहिने
हाथ हैं।
रानी वह भी किसलिये ? अपने देश वासियों को नीचा दि'खाने के लिए मायावी यवन बादशाहः कांटे से कांटा निकालना चाहता है। .. .. . 'द्वार अर्थात्-..