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राजपूताने के जैन वीर
में मिला है, उस से पाया जाता है कि यह राजा जैनी' ही नहीं था, किन्तु विद्वान् भी था । क्योंकि इस शिलालेख के अन्त में एक श्लोक लिखकर उसके आगे लिखा है कि यह श्लोक स्वयं कक्कुक महाराजं ने बनाया है:
"यौवने विविधैभोगैर्मध्यमं चन्वयः श्रिया । वद्धभावश्च धर्मेण यस्य याति स पुण्यवान् ॥ "
भावार्थ:- जिसकी युवा अवस्था नाना प्रकार के भोग भोगने में, और मध्यम वय धन उपार्जन करने में तथा वृद्धावस्था धर्मध्यान में व्यतीत होवे, वही पुण्यवान् पुरुष हैं । यह श्लोक श्री कक्कुक ने स्वयं रचा है ।
पहला शिला लेख प्राकृत भाषा में है, जिस से यह सूचित होता कि उस समय के विद्वान् केवल प्राकृत भाषा के ही पण्डित नहीं थे, किन्तु उनको जैन-धर्म का पूर्ण अभिमान भी था । और दूसरे शिलालेख के अन्तिम श्लोक से यह बोधित होता है कि महाराज ककुक केवल विद्वान ही नहीं थे, किन्तु नीतिनिपुण और धर्मानुरागी भी थे ।" .
[१५ जनवरी सन् ३३ ]