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मेवाड़ के वीर
राणाओं के समकालीन जैन मंत्री वर्तमान शिशोदिया राज-वंश का चित्तौड़ में अधिकार होने (वि०सं०की आठवीं शताव्दी) से पूर्व मेवाड़ की परिस्थिति बताने में इतिहास के पृष्ठ मौन है। फिर भी मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ होने से पूर्व नागदा और बाहड़में रही हो, ऐसे प्रमाण मिलते हैं। इन दोनों स्थानों पर बड़े बड़े विशाल प्राचीन जैनमन्दिर अभीतक विद्यमान हैं, जिनसे कि प्रकट होता है कि उस काल में जैनों का वहाँ पर उत्कर्ष रहा होगा।
चित्तौड़गढ़ भी उक्त राजवंशों के आधिपत्य से पूर्व और कुछ बीच में जैनधर्मी राजाओं के अधिकार में रहा है, मेवाड़ में उक्त राजवंश के उत्कर्ष में जैनों का क्या स्थान है, आगे इसी पर विवेचन करना है।
मेवाड़ के उक्त राणाओं का सिलसिलेवार प्रामाणिक इतिहास रावल तेजसिंह से मिलता है, अतः प्रस्तुत निवन्ध का श्री गणेश भी यहीं से किया जाता है। रावल तेजसिंह " परम भट्टारक" उपाधि से सुशोभित थे, यह उपाधि पहले किसी अर्थ में रही हो, किन्तु प्रायः यह विरुद आज तक जैनियों के यहाँ ही प्रचलित है। इन्हीं रावल तेजसिंह की पटराणी जयतल्लदेवी प्रकट रूप में जैनधर्मी हुई है । जिसने कि चित्तौड़ पर श्याम पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था । रावल तेजसिंह ने चैनंगच्छ के आचार्य रत्नप्रभसूरि का अत्यन्त सम्मान किया था।