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१५६ राजपुताने के जैनवीर रक्षा करने के लिये बतादी और राणाजी ने इनकी स्वामि-भक्ति से प्रसन्न हो, अपने प्रधान का पद इनको दिया । परन्तु इसके विरुद्ध यहाँ हाल जाहिर आया है कि दयालजी पहिले मारवाड़ . की तरफ रहते थे। जिस वक्त राजसंमुद्र का निर्माण आरंभ हुवा उस वक्त नींव में का पानी न रुकने से किसी ज्योतिषी के कथनानुसार दयालशाह की पतिव्रता स्त्री गौरादेवी को उनके हाथ से समुद्र की परिक्रमा कच्चे सूत से लगवा इन्हीं सती के हाथ से नींव का पत्थर जमवाया और उसीके बाद दयालशाह को अपने प्रधान पद पर नियुक्त किया । दयालशाह एक वीर पुरुष, स्वामि-भक्त व बड़े चतुर विलक्षण धार्मिक पुरुष थे। कहते हैं कि राजसमुद्र के तालाब व नौ चौकियों का निर्माण इन्हीं की देख रेख में हुवा था
और इन्होंने भी पास ही एक पहाड़ पर श्रीश्रादेश्वर भगवान की चौमुखी मूर्ति स्थापना करा सं० १९६२ में मंदिर का निर्माण कराया, जो आजदिनतक दयालशाह के किले के नाम से विख्यात है और मंदिर के चारों तरफ़ कोट वन कर लड़ाई की दुजें अभी तक विद्यमान हैं । इस मंदिर के पहिले नौमंजिल थे, जिसका कुल खर्चा वनाने में ९९९९९९||||| हुवा।
उस वक्त की कविता भी चली आ रही है-- जब था राणा राजसी, तब था शाह दयाल । । • अणां वैधाया देहरो, 'त्रणा बंधाई पाल || .
हिम्मतसिंहजी स्वरूपरया एम.ए. एल.एल.वी. द्वारा लिखित ।