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मेवाड़ के वीर महल के नाम से विख्यात होकर कुछ खंडहर अभी तक विद्यमान हैं। तथा डूंगरसीजी के पहिले तक तो यह श्रवणजी का वंश सिसोदिया के नाम से प्रसिद्ध था। परन्तु इंगरसीजी को सुरपर घसीस होने पर यह वंश सरूपरया (गोन सिसोदया) कहलाने लगा। कहते हैं कि राणाजी इनके यहाँ खेंखरा (दिवाली के दूसरे दिन) को होड़ हीचवा पधारते थे। १५१० में डूंगरसीजी ने जारेड़ा (रामपुरा रियासत हाल ग्वालियर) में आदीश्वर भगवान की चौमुखी मूर्ति स्थापन करा मंदिर वनवाया-डूंगरसीजी की पाँचवीं पीढीमें गोविन्दजी हुवे-जिनके दो पुत्र (ज्येष्ठ) पारसिंह व (कनिष्ट ) नरसिंह थे--पारसिंह की बटवीं पीढी में उदेसिंह के द्वितीय पुत्र गिरधरलालजी के वंशज अभी तक उदयपुर में मौजूद हैं। __इसी तरह कनिष्ठ पुत्र नरसिंह के द्वितीय पुत्र पद्मोजी के पोते नेताजी जो मारवाड़ की तर्फ गये। उनके तीसरे लड़के गजोजी थे-गजोजी के तीसरे लड़के राजोजी हुये और राजोजी के चार लड़के उदाजी, दुयाजी,दयालजी जो पीछे दयालसाहके नाम से विख्यात हुए, व देधाजी थे। __दयालशाह की वावत जो ख्याति ओझाजी के राजपूताने के इतिहास में चली आ रही है कि ये पहिले पुरोहित के यहाँ काम करते थे, और एक वक्त वाहिर कार्य वश गाँव जाते समय उन्होंने जो कटार पुरोहितजी से मांगी तो उसमें से जो चिट्ठी अकस्मात् इनके हाथ आ गई वो इन्होंने राणाजी को उनके प्राण