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-१२४ राजपूताने के जैन-चीर __ मेवाड़ का वह टिमटिमाता हुआ दीपक शालुम्ना सरदार के
आश्वासन रूपी तेल को पाकर फिर प्रज्वलित होउठा । महाराणा प्रताप अपने शरीर की पूर्ण शक्ति लगाकर बड़े कष्ट से बोलेः"प्यारे संखा ! पूछते हो मुझ से, क्या कष्ट है ? मेरे भोले सरदार! इतने भोलेपन का प्रश्न ! मेरी मातृ-भूमि चित्तौड़ जो मेरे पूर्वजों की क्रीडास्थली थी। जिसके लिये मुस्कराते हुये उन्होंने अपने प्राणों की आहुतियाँ दी। उसे मैं यवनों के चंगुल से नहीं छुड़ा सका, मैं अपने प्यारे देशवासियों को चितौड़ की पवित्र भूमि पर स्वतंत्र विचरते हुये न देख सका; यह क्या कम कष्ट है ! यही दारुण चंदना मेरे प्राणों को रोके हुये है।" __ शालुम्बा-सरदार मस्तक झुकाकर बोले-"श्रीमान् आपको यह पवित्र अभिलाषा अवश्य पूर्ण होगी । आप किसी प्रकार की चिन्ता न करके एकाग्रचित्त से भगवान् का स्मर्ण करिये......" ___ शालुम्बा-सरदारके वाक्य पूर्ण होने तक महाराणा प्रताप का विवाद पूर्ण पीला मुँह गम्भीर हो गया, वह बीच में ही वात काट कर बोले
"ओह ! शालम्बा-सरदार मुझे वाक्य-पटुता में न फंसाओ। मुझे इस समय धर्मोपदेश को आवश्यकता नहीं । देश परतंत्र रहे और मैं इस अन्त समय में भगवान् का स्मर्ण करके परलोक सुधारूं ? छिः कैसी वाक्य-विडम्बना है ! मेरे मित्र ! याद रक्खो; जो इस लोक में परतंत्र हैं, वह परलोक में भी परतंत्र रहेंगे । जो व्यक्ति अपने देशवासियों को दुख-सागर में विलखते देखकर अकेला