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मेवाड़ के वीर
सेवक का कर्तव्य.
मे वायु- केसरी महाराणा प्रताप मौत के शिकंजे में जकड़े हुये थे । वह लोहे के कटघरे में फसे हुये शेर की भान्ति रुग्ण-शैय्या पर पड़े हुये छटपटा रहे थे । अस्फुट वेदना के चिन्ह उनके मुख से भली भान्ति प्रगट हो रहे थे । आँखों के कोने में छुपे हुये आँसू मौन-वेदना का सन्देश दे रहे थे । वीर-चूड़ामणि महाराणा प्रताप ने पूर्वजों की बनाई हुई गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को छोड़ कर पीछोला सरोवर के किनारे पर कई एक झोपड़ियाँ बनवाई थीं । उन्हीं कुटियों में अपने समस्त सरदारों के साथ राणाजी अपना राजर्षि - जीवन व्यतीत करते थे । आज अन्तकाल के समय भी उन्हीं में से एक साधारण कुटी में रुग्ण- शैय्या पर लेटे हुये क्रूरकाल की बाट जोह रहे थे। इतने में ही प्रचण्ड - वेग से शरीर को कम्पायमान करती हुई एक साँस राणाजी के मुँह से निकली । समीप में बैठे हुये उनके जीवन के सखा, मेवाड़ के सामन्त और सरदार उनकी इस मर्मान्तिक वेदना को देख कर कांप उठे । शालुम्बा - सरदार कातर होकर रुथे हुयेस्वर से बोले "अन्नदाता"" ! इस अन्तिम समय में आपको ऐसी क्या चिंता है ? किस दारुण दुख के कारण आप छटापटा रहे हैं! आपका यह दीर्घ निश्वांस हमारे हृदय में तीर की तरह लगा है। यदि कोई अभिलाषा हैं, तो कृपा करके कहिये, हम सब आपकी इस अंतिम इच्छा को जीवन के अन्त समय तक अवश्य पूर्ण करेंगे ।"
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