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मेवाड़ के वीर.. दारों को भेजा, जिनके साथ अंगरचन्द भी था।
वि० सं० १८५७ (ई० स० १८०० ) के पौष महीने में मांडलगढ़ में अगरचन्द का देहान्त हुआ। महाराणा अरिसिंह (दूसरे) के समय से लगाकर महाराणा भीमसिंह तक उसने स्वामिभक्त रह कर उदयपुर राज्य की बहुत कुछ सेवा की, और कई लड़ाइयों में वह लड़ा। उसने अपने अन्तिम समय अपने वंशजों के लिये राज्य की सेवा में रहते हुए किस प्रकार रहना, क्या करना, और क्या न करना, इत्यादि के सम्बन्ध में जो उपदेश लिखवाया है, वह वास्तव में उसकी दूरदर्शिता, सन्त्री स्वामीभक्ति और प्रकाण्ड अनुभव का सूचक है ।
महता अगरचन्द के पत्र देवीचन्द ने अपने रहने के लिये एक महल बनवा लिया था । यह बात मेहता अगरचन्द को धुरी लगी, उसे भय हुआ कि कहीं मेरा पत्र महलों में रहकर आरामतलव न हो जाय ! योद्धा की ऐशो-आराम में पड़ने से वही गति होती है, जो भाग में पड़ने से घी की । अतएव मेहता अगरचंद ने तत्काल अपने पुत्र को एक उपदेश पूर्ण पत्र लिखा जिसका
आशय यही था कि "पुत्र ! सच्चे शूरवीरं तो रणस्थल में क्रीड़ा किया करते हैं और वहीं शयन करते हैं, फिर तुमने यह विपरीत पथ क्यों स्वीकार किया ? क्या तुम्हारे हृदय में अपने पूर्वजों की भांति जीने और मरने की हविस नहीं है । यदि अपने पूर्वजों का अनुकरण करना और मेवाड़ की प्रतिष्ठा चाहते हो, तो इस
* राजपूताने का इ. चौथा म्हण्ड पृष्ठ १३१४-१५
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