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मेवाड़ के जैन वीर
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भामाशाह कुम्भलमेरु की प्रजा को लेकर मालवे में रामपुरे की ओर चला गया था, वहाँ भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने मालवे पर चढ़ाई करके २५ लाख रुपये तथा २० हजार अशर्फियाँ दण्ड स्वरूप वसूल कीं इस संकटावस्था में उस वीर ने देश-भक्ति तथा स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर, कर्नल जेम्सटॉड के कथनानुसार, राणा प्रताप को जो धन भेट किया था, वह इतना था कि २५ हजार सैनिकों का १२ वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। इस महान उपकार करने के कारण महात्मा भामाशाह मेवाड़ के उद्धारकर्ता कहलाये गये || भामाशाह के इस अपूर्व त्याग के सम्बन्ध में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी ने लिखा है:--
जा धन के हित नारि तजै पति, पूह तजै पितु शीलहि सोई ।
भाई सों भाई लरै रिपु से पुनि, मित्रता मित्र तजै दुख जोई ।
ता धन को वनिया है गिन्यो न,
दियो दुख देश के भारत होई ।
तुम्हारोई है,
स्वारथ अ तुमरे सम और न या जग कोई ॥
देशभक्त भामाशाह का यह कैसा अपूर्व स्वार्थ त्याग है ? ' .
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-देखो टाड राजस्थान, जि० १ पृ० ३४९ ॥