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राजपूताने के जैन-वीर
कोठारी भीमसी
जिनकी प्रांखनते रहे बरसत भोज अंगार । तिनके वंशज पर्ते हग कांपत सुकुमारं ॥ रहे रंगत रिपु रुधिर सों समर- केस निरंवारि । तिनके कुल व हीजरे काढत मांग संवारि ॥
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-वियोगीहरि
सभ मय की गति बड़ी विचित्र है और प्रकृति के खेल भी बड़े अनूठे हैं। जो बात किसी के ध्यान में नहीं आती, जिस बात को लोग असम्भव समझते रहते हैं, वही समय पाकर सम्भव हो जाती है । संसार में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं । सिंहों के बच्चे भेड़ों का आचरण करें, हंसों के बालक चील-कौत्रों के साथ खेलें ; चातक और हारिल वंश अपनी धान छोड़ें - यह श्रसम्भव प्रतीत होता है, पर सब कुछ हो रहा है । उक्त पशु-पक्षियों की बात जाने दीजिये, उनमें विवेक नहीं, सम्भव है उन्हें अपने कुल की मान-मर्यादा याद न रहे, पर यहाँ तो उन महाजन- पुत्रों की ओर संकेत है जो विद्या-बुद्धि के ठेकेदार हैं ।
वे अपनी मर्यादा को भूलकर महाजन की जगह बनिये बक्काल कहलाने लगे हैं । उनकी आँखों का पानी मारा गया है, न उनमें गैरत है न स्वाभिमान, वे अपनी आँखों के सामने अपनी
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