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राजपूतानेके जैन-वीर
चोटी, चटक मटक में तल्लीन हैं; इस्तहार वाजों से प्रमेह - उपदेश आदि की दवाएँ ले रहे हैं। वे क्या हैं ? देश के प्रति उनका क्या कर्तव्य है ? इसकी उन्हें चिन्ता नहीं । वे विलासिता के दास और जोरुओं के गुलाम बने हुये हैं । हर समय और हर घड़ी अपने सूखे और रूखे वदन को वेश्याओं की तरह सजाना, प्रेम कथा सुनना, हर वक्त किसी लैला पर मजनू बने रहना, यही उनका धर्म और यही उनके जीवन का ध्येय बना हुआ है। जब चटकमटक से ही अवकाश नहीं तब वे क्यों और कब वीरता का पाठ पढ़ें और मर्दों की सुहबत में बैठें—वे क्यों तलवार और लाठी के हाथ सीखें ? वे तो अपने जी बहलांव के लिये, तवले वजाऐंगे, नाटकों में पार्ट करेंगे, जनखों से दायें सीखेंगे। दुनियाँ हँसती है हँसने दीजिये, लोग थूकते हैं थूकने दीजिये, कोई बकता है बकने दीजिये, देश रसातल को जारहा है जाने दीजिये, क़ौम मिट्टी जा रही है मिटने दीजिये । वे अपने रंग में भंग क्यों डालें ? उनकी वही टेढ़ी माँग और वही लचकीली चाल रहेगी, दुनियाँ इधर से उधर होजाय, पर वे न बदलेंगे । और बदलें भी क्यों ? काफी बदल लिये, मर्द से जनाने और जनाने से शिखंडी महाजन से वैश्य, वैश्य से बनिये और बनिये से बंकाल हुये, क्या ांव भी सन्तोष नहीं होता ? बमुश्किल चैन मिला है, यह सुहावना लिवास उनसे न उतारा जायगा । उनके पर्खा क्या थे? उन्हें सब मालूम है, उनकी तारीफ़ मत करों । एकदम लम्बे तडंगे, छाती चौड़ी, आँखें सुर्ख कलाई लोहे जैसी कठोर; न नजाकत न कोई अदाँ बात चीत
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