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मेवाड़ के वीर बहन-बेटियों पर होते अत्याचार नित्यप्रेति देखते हैं; किन्तु महसूस नहीं करते । वे स्वयं हर जगह और हर समय अपमानित होते हैं, पर वे इसकी तनिक भी पर्वाह नहीं करते हैं । उनके स्वाभिमान का नशा विलासिता खुशी ने उतार दिया है ।
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न अब उनकी आँखों में गौरव का खुमार है और न मर्दानगी
· जला सब तेल दीया बुझ गया है जलेगा क्या । वना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या ॥१॥ रहा जिसमें नं दम जिसके लहू पर पंड़ा गया पांला । उसे पिटना पछंड़ना ठीकरें खाना खलेगा क्या ॥२॥ भले ही बेटियां- बहनें लुटें बरबाद हो बिगड़ें | कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तव गलेगा क्या ॥३॥
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का लाल डोरा । वे जान बूझकर मर्द से शिखंडी बने हैं। मुख
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निस्तेज आँखें अन्दर घुसी हुई, पेट आगे निकला हुआ, नाक पर 'पत्थर की लालटेन लगी हुई, दान्स आबड़-खूबड़, पर पान से रंगीन, हाथ में पतली छड़ी, विदेशी वस्त्रों से ढके बने ठने महाजन पत्रों की अब यही पहचान है । जिन युवकों की ओर देश और समाज सतृष्ण दृष्टि से देख रहे हैं, वे युवक सुरमा, मिस्सी, कंघी,
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+ नफासत भरी है तबियत में उनकी । नज़ाकत सी दाखिल है. आदत में उनकी । दवाओं में मुश्क उनकी उठता है ढेरों वह पोशाक में
मलते हैं सैरी ॥
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