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राजपूताने के जैन-वीर (२२)
जो या काम स्वामी ! यह धन, अपने देश-रक्षा हितार्थ, हो जाऊँगा सर्वश, प्रभुवर ! ऋण से छूट के मैं कृतार्थ ॥ हूँ रांगा ! वैश्य तौ भी यदि वल रहता वृद्ध होता नहीं मैं, तो लेके खड़ग जाता समर-हित जहाँ शत्रु होते वहीं मैं । (२३)
मंत्री हूँ, वृद्ध हूँ मैं, अहित न कभी मैं कहूँगा नरेश ! होगा कष्ट-प्रदाता, डरकर, रिंपु से त्यागना व्यर्थ देश । हे स्वामी ! लौटियेगा पितरगण का सोचके स्वाभिमान, जाने दूँगा हा ! मैं प्रभुवर ! न कभी आपको अन्य स्थान !! ! ( २४ )
जाना
देखो तो, जन्म भू है रुदन कर रही, हा ! हत ज्ञान होके : शक्ति, श्री, बुद्धि, विद्या, रहित वह हुई आपको आज खोके, माता को दुख रूपी अगम जलधि में मूर्छिता छोड़ जाना: मैंने यही है ऋण इस युग में पूर्णता से चुकाना ॥ (२५) वोले यों बात कारी सुन सचिव की वीर श्रीमान् राणा, हा ! मां मेवाड़ भूमे ! मृतक समझ के तू मुझे भूल जाना । जो नाना आपदाएँ नित नई तुम पै एक से एक आई, मेरी ही मूर्खता से श्रहह ! सकल ही रे गईं हैं बुलाई ॥ ( २६ )
मंत्री की स्वामी भक्ति प्रकट लख तथा देख के आत्म-त्याग, बोले राणा प्रतापी, वचन नर पुनः तुष्ट हो सानुराग । 'मंत्री पा होगया मैं सुचतुर तुमसा श्राज भामा ! कृतार्थ: भेजा क्या नात-भू ने रचकर तुमको देश- रक्षा हितार्थ ॥ +
+- श्री गोविन्दसिंह जी पंचौली चित्तौड़गढ़ की कृपा से प्राप्त ।