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राजपूनाने के जैन-वीर
योद्धा थे साथ में, थे धन जन, न रहा साधनों का प्रभाव मंत्री! मैंने दिखाये तब तक अपने ज्ञान शक्ति प्रभाव । हों कैसे, भोजनों का दुख जब हम को सालता रोज हाय! रक्षा वंश-प्रतिष्ठा तब अब अपनी, है कहो, क्या उपाय ?
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रोते हैं राजपुत्र, क्षुधित दुखित हो, अम्ब की ओह देख! छाती जाती फटी है तब इस शठ की हाय ! रे कर्म रेख!! ऐसी दीन दशा में कबतक रिपु से युद्ध हाहा! करूँगा ? क्या श्री स्वाधीनता कोअकवर कर में सौंप, स्वाहा करूँगा ?
(१४) . . पीछे पीछे सदा ही अहह ! फिर रही शत्रु-सेना हमारे। धीरे धीरे कुटुम्बी सुभट हत हुये युद्ध में हाय सारे ॥ सामग्री एक भी है, समर-हित नहीं पास में और शेष, भागी भागी प्रजा भी, समय फिर रही, भोगती घोर क्लेश!!
हे मंत्री ! सामना मैं कर अब सकता शत्रुओं का न और, जाता हूँ मातृ-भू को तजकर, इस से दुःख में अन्य ठौर । मेरी प्यारी प्रजा को. अमित दुःख. मिले नित्य मेरे निमित्त, तौभी स्वातंत्र्यरूपी, वह अहह नहीं पासकी श्रेष्ठ वित्त !!
क्या.ही निश्चिन्ततासे भय तज रिप कासिन्धु केपार जाके हे हे मंत्री ! रहूँगा 'सुख सहित नया-रक्षित स्थान पाके। मेवाड़ोद्धार हेतु प्रमुदित करके राज्य की स्थापना में, भीलों की सैन्य लूंगा अगणित धन के साथ ही मेंबना मैं ।।