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मेवाड़ के पार
जावेगी मात में, जो निकलं कर सभी हाथ से, हा! हमारे, तो क्या निर्जीव प्राणी हम सब हैं व्यर्थ ही प्राण धारे ? ऐसा होने न देंगे प्रण कर अपने प्राण, का दान देके, होंगे सेवा चुकाते, अमर निहत हो युद्ध में कीति लेके ।
आवेगा काम तेरा, कब यह धन हा!रे! कृतघ्नी कठोर, भामा! धिक्कार लाखों तव धन बल को निन्धरे नीच घोर !" भामा ने यो स्वयं ही कटु वचन कहे खेद पाके अपार, आँखों से छूटने त्यों अहह ! फिर लगी रक्त-पर्णाश्रुधार ।
स्वामी को शीघ्रता से, वन-चन फिरता ढूंढता शाह भामा, पाता अत्यन्त पीड़ा, लख गति नप के कर्म की हाय! वामा.। सिन्धु-प्रान्तस्थ सीमा पर जब पहुँचा तो वहाँ दूर ही से, देखा कौटुम्बियों के युत, नरवर को खिन्नता त्यागं जीसें ।।
घोड़े से भूमि पै श्रा, घर कर हय को रास मंत्री चला यो, माता मेवाड़-मग्ने स्वसुत निकट है दूत भेजां भला ज्यो.! जाको मेवाड़-मौर। प्रभुवर-पद पैं शीश मंत्री मंकाय घोला यो नम्रता से नयन-युगल से शोक-आँसू 'वहा के:
"हो जावेगी अनाथा: प्रभुवर ! जननी, जन्म-भूमि प्रसिद्ध, त्यागेंगे आप यों, जो कुसमय उसको हो विपत्यान-विद्ध !! राणाको चित्तमें.यों विषम विषमयी क्यों हुई आत्म-पलानी? धेरै संसार को श्रांजलंद पटलं तो सूर्य"की कन हानी?
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