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राजपूताने के जैन चीर
जाते-जाते उठे यों, बणिक-हृदय में आप ही भाव नाना-- क्यों जाते हैं। कहाँ हो विवश? पड़ गये लोभ में तो नरागारी: आशा तो है न होगी, इस तरह उन्हें हीनता से विरक्ति, है आर्थों की प्रतिष्ठा अविचल उनकी प्रात्सदा आत्मशक्ति।
"हा! अर्थाभाव.ही के हित नृपातजना चाहते हैं स्वदेश!" ऐसा. मैंने किसी- को उसदिन कहते.था सुना. हाय छेशः! हिन्दु-सूर्य प्रतापी प्रखरतर कहाँ शक्तिशाली: प्रताप? पीडा-बीड़ा प्रपूर्ण प्रबल अति कहाँ निन्ः अर्थान्नताप.॥ . जो ऐसी ही अवस्था इस समय हुई प्राप्त, आगे कदापिः. तो तस्वाभाविकी रें! बरिणक, कृपणता चिचलानान पापी!. हे. हे मेवाड़-माता! चल अनुपम तू दे मुझे आज ऐसा, . सेवा में त्याग-युक्त प्रकट कर सकूँ चीर सत्पुत्र जैसा ॥ :
. (४).
जो तू आधीन होके यवन नृपति के क्लेश नाना: सहेगी. वो क्या आधीनता का अनल न हमको नित्यहीमाँ दुहेगी? . खोके स्वातंत्र्य रूपी मणि हम दुःख के, घोर काली निशामें,, जावेंगे क्यान हा! हा! तज कुल-गरिमा, मृत्युहीकी दिशा में! जो श्री-मेवाड़-भू के शुचितरः कुल के गर्व का कीर्ति केतु जावेगा टूटा तो क्या फ़िर धन जन त सोच हो, लाम हेतुः । लेलेंगे क्रूरता से हर कर रिप जो सौख्य की वस्तुः सारी , : मारे मारे फिरेंगे, तब हम, मधु की मक्षिका ज्यों दुखारी ।।