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________________ ४८ ... राजपूनाने के जैन-वीर योद्धा थे साथ में, थे धन जन, न रहा साधनों का प्रभाव मंत्री! मैंने दिखाये तब तक अपने ज्ञान शक्ति प्रभाव । हों कैसे, भोजनों का दुख जब हम को सालता रोज हाय! रक्षा वंश-प्रतिष्ठा तब अब अपनी, है कहो, क्या उपाय ? (१३) रोते हैं राजपुत्र, क्षुधित दुखित हो, अम्ब की ओह देख! छाती जाती फटी है तब इस शठ की हाय ! रे कर्म रेख!! ऐसी दीन दशा में कबतक रिपु से युद्ध हाहा! करूँगा ? क्या श्री स्वाधीनता कोअकवर कर में सौंप, स्वाहा करूँगा ? (१४) . . पीछे पीछे सदा ही अहह ! फिर रही शत्रु-सेना हमारे। धीरे धीरे कुटुम्बी सुभट हत हुये युद्ध में हाय सारे ॥ सामग्री एक भी है, समर-हित नहीं पास में और शेष, भागी भागी प्रजा भी, समय फिर रही, भोगती घोर क्लेश!! हे मंत्री ! सामना मैं कर अब सकता शत्रुओं का न और, जाता हूँ मातृ-भू को तजकर, इस से दुःख में अन्य ठौर । मेरी प्यारी प्रजा को. अमित दुःख. मिले नित्य मेरे निमित्त, तौभी स्वातंत्र्यरूपी, वह अहह नहीं पासकी श्रेष्ठ वित्त !! क्या.ही निश्चिन्ततासे भय तज रिप कासिन्धु केपार जाके हे हे मंत्री ! रहूँगा 'सुख सहित नया-रक्षित स्थान पाके। मेवाड़ोद्धार हेतु प्रमुदित करके राज्य की स्थापना में, भीलों की सैन्य लूंगा अगणित धन के साथ ही मेंबना मैं ।।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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