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मेवाड़ के वीर इस देवी ने हिन्दु-कुल-तिलक महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह की जय कि वह निरावालक था-प्राण-रक्षा की थी, उस निरामय को अपने फुटम्ब का मोह छोड़ कर आश्रय दिया था। यही कारण है कि राणा उदयसिंह के सम्बन्ध में लिखते हुये टॉड साहव को अपने राजस्थान में प्रसन्न वश इस देवी का उल्लेख भी दो लाइन में करना पड़ा है।
चित्तौड़ के राज्यासन पर बैठते ही दासी-पत्र बनवीर का हृदय बदल गया, उसे वे पिये ही दो बोतल का नशा रहने लगा। स्वार्थपरता कृतज्ञता को धर दवाती है। लोभ दया को स्थिर नहीं रहने देता । जो बनवीर विक्रमाजित को गद्दी से उतार कर राज्य प्राप्त करना घोर पाप समझता था, वही वनवीर राज्यासन पर बैठते ही सदा निष्कंटक राज्य करते रहने की कूट नीति सोचने लगा। वह राज्य के यथार्य उत्तराधिकारी यालक उदयसिंह को अपने पथ में काँटा समझ कर उसे मिटा देने के लिये क्रूर रात्रि की बाट जोहने लगा। धीरे २रात्रि हो गई । कुमार उदयसिंह ने मो. जनादि करके शयन किया । उनकी धाई विस्तरे पर बैठ सेवा करने लगी । कुछ विलम्ब के पीछे रणवास में घोर आर्तनाद और रोने का शब्द सुनाई आने लगा। इस शब्द को सुन कर
+ यह बनवीर दासी पुत्र था और उदयसिंह का रिश्ते में चाचा लगता था। राणा संग्रामसिंह के स्वगांसीन होने पर रसके पुत्र प्रमशः रत्नसिंह और विक्रमाजित मेवाड़ के अधीश्वर हुये, किन्तु विक्रमानित अयोग्य या इसलिये मेवाड़ हितैषी सरदारों ने विप्रमाणित को हटा कर बालक उदयसिंह के बालिला होने तक बनवीर को चित्तौड़ के राज्याशन पर अभिशित कर दिया था।
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