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राजपूताने के जैन वीर
आता, निरपराधियों और बेकसों को अत्याचारियों के चंगुल से सामर्थ्य रहते हुये भी नहीं बचा सकता, निराश्रयों को आश्रय नहीं दे सकता, ऐसे अधम को संसार में जीने का अधिकार नहीं । , जिन हाथों से लोरियाँ गा-गा कर तुझे इतना बड़ा किया, आज उन्हीं हाथों से तेरा जीवन समाप्त कर दूँ ।"
इतना कहकर वह भूखी शेरनी की भांति आशाशाह पर झपट पड़ी और चाहती थी कि ऐसे नराधम, भीरु, कायर और अधर्मी पुत्र का गला घोट दूँ, कि आशाशाह अपनी वीर माता के पावों में गिर पड़ा, उसकी भीरुता हिरन होगई । वह घुटने टेक अश्रुविन्दुओं से अपनी वीर माता के चरण कमलों का अभिषेक करने लगा | वह मातृ-भक्त गद् गद् कण्ठ से बोला
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माँ ! तुम्हारा पुत्र होकर भी मैं यह भीरुता कर सकता था? क्या सिंहनी - पुत्र शृगाल के भय से अपने धर्म से विमुख हो सकता है? क्या प्राणों के तुच्छ मोह में पड़कर मैं शरणागत की रक्षा न करके अपने धर्म से विमुख होसकता था? मेरी अच्छी अम्मा ! क्या वास्तव में तुम्हें यह भ्रम होगया था ?"
आशाशाह के वीरोचित शब्द सुनकर वीर माता का हृदय उमड़ आया, वह उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी । आशाशाह माता का यह व्यवहार देखकर मुस्करा कर बोला :"माँ यह क्या? कहाँ तो तुम मेरा जीवन समाप्त कर देना चाहती थीं और कहाँ....
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वीर-माता बात काट कर बोली, बेटा क्षत्राणियों का अद्भुत