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राजपूताने के जैनवीर आदिनाथ का और दूसरा पार्श्वनाथ का है। इन मन्दिरों तथा. इनके तहखानों में रक्खी हुई 'भिन्नर तीर्थंकरों, प्राचार्यों एवं उपाध्यायों की मूर्तियों के आसनों तथा पाषाण के भिन्न २ पट्टों
आदि पर खुदे हुये लेख वि० सं० १४६४ से १६८९.तक के हैं । पहले यहाँ अच्छे धनाढ्य जैनों की श्रावादी थी और प्रसिद्ध सोमसुन्दरिसरि का जिनको 'वाचक' पदवी वि० सं० १४५० (ई० स०१३९३) में मिली थी, कई बार यहाँ आगमन हुआ, उनका .यहाँ बहुत कुछ सम्मान हुश्रा और उनके यहां आने के प्रसंग पर उत्सव भी मनाये गये थे, ऐसा 'सोमसौभाग्य' काव्य से पाया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व यहाँ के एक मन्दिर का जीर्णोद्धार करते समय मन्दिर के कोट के पीछे के खेत में से १२२ जिन प्रतिमाएँ तथा दो एक.पाषाण पर निकले थे। ये प्रतिमाएँ मुसलमानों के बदाइयों के.समय मन्दिरों से उठाकर यहाँ गाढ दी गई हों, ऐसा अनुमान होता है। महाराणा लाखा के समय से पूर्व का यहाँ कोई शिलालेख नहीं मिलता । महाराणा मोकल और कुम्मा के समय यह स्थान. अधिक सम्पन्न रहा हो, ऐसा उनके समय की बनी हुई कई मूर्तियों के लेखों से अनुमान होता है । देलवाड़ें के बाहर एक कलाल के मकान के सामने के खेत में कई विशाल मूर्तियाँ गढ़ी हुई हैं, ऐसी: खबर मिलने पर मैंने वहाँ खुद्वाया तो चार घड़ी, २ मूर्तियाँ निकली, जो खंडित थी और उनमें से कोई भी महाराणा कुम्भा के समय से: पूर्व की न थीं-1 (HR३६६