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राजपूताने के जैन वीर
अपनी धन और मान पर स्थिर रहने वाले जिस मेवाड़ ने लगातार ८०० वर्ष तक विदेशीय बादशाहों से युद्ध करके लोहा लिया और समस्त संसार में अपना आसन ऊँचा किया है। उसी मेवाड़ के मंत्री, कोषाध्यक्ष दण्ड-नायक आदि जैसे ज़िम्मेदारी के पदों पर अनेक जैनधर्मावलम्बी प्रतिष्ठित होते रहे हैं । जब कि
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उस युद्ध-काल के समय में अच्छे २ कुलीन राजपूत नरेश, वाद'शाहों की ओर मिल रहे थे; विश्वासघात और षड्यन्त्रों का बाज़ार गर्म था। भाई को भाई निगल जाने की ताक में लगा हुआ था, सगे से सगे पर भी विश्वास करने के लिये दिल नहीं ठुकता था । तब ऐसी नाजुक परिस्थिति में ऐसे प्रतिष्ठित और जोखिमदारी के पदों पर पुश्त दर पुश्त आसीन होते रहना क्या कुछ कम गौरव और ईमानदारी का प्रमाण है ?
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राजपूताने में जहाँ आठसौ वर्ष तक प्रलयकारी युद्ध होता रहा, पल-पल में मान-मर्यादा के चले जाने का भय बना रहता था ज़रा से प्रलोभन में आजाने या दाव चूक जाने से सर्वस्व नष्ट हो जाने की सम्भावना बनी रहती थी, तब वहाँ इन नर-रत्नों ने कैसे२ आदर्श, वीरता, त्याग आदि के उदाहरण दिखाये, वह आज संसार सागर में विलीन हैं। इसका कारण यही हैं कि आज से
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कुछ दिन पूर्व हमारे यहाँ केवल राजाओं और बादशाहों के जीवन चरित्र लिखने की परिपाटी थी । सर्व साधारण में कोई कितना ही वीर, सदाचारी प्रतिष्ठित और महान क्यों न होता ; पर, उसके जीवन सम्बन्धी घटनाओं के लिखने की कोई आवश्य